वाराणसी । शिव की नगरी काशी की पवित्र संध्या शनिवार को कुछ पलों के लिए वृंदावन में परिवर्तित हो गई। गंगा के किनारे तुलसी घाट पर भक्ति, आस्था और परंपरा का अद्भुत संगम उस समय देखने को मिला जब सैकड़ों वर्षों पुरानी ‘कृष्णलीला की नाग नथैया’ का मंचन आरंभ हुआ। गंगा की लहरों ने यमुना का रूप लिया और घाट की सीढ़ियों पर उतरे बालक कृष्ण ने कालिया नाग का संहार कर वातावरण को दिव्यता और उल्लास से भर दिया। जैसे ही बालक कृष्ण अपने सखाओं संग घाट पर पहुंचे, पूरा तट “हर-हर महादेव” और “जय श्रीकृष्ण” के गगनभेदी जयघोषों से गूंज उठा। घाट की ऊँची बुर्ज पर विराजमान ‘कंस’ के स्वरूप और संकटमोचन मंदिर के महंत सहित हजारों श्रद्धालुओं ने इस दिव्य लीला का साक्षात्कार किया। दीपों की जगमग रोशनी में डूबा तुलसी घाट उस क्षण किसी स्वर्गीय लोक का दृश्य प्रस्तुत कर रहा था।इतिहास साक्षी है कि यह लीला मात्र धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा आरंभ की गई एक जीवित परंपरा है। कहा जाता है कि संत तुलसीदास ने काशीवासियों को भक्ति, प्रेम और धर्म का सजीव अनुभव कराने के उद्देश्य से इस लीला की शुरुआत की थी। तब से लेकर आज तक — पाँच सदियों से — यह परंपरा बिना रुके, उसी श्रद्धा और भक्ति के साथ निभाई जा रही है। हर वर्ष कार्तिक शुक्ल पक्ष की विशेष संध्या को तुलसी घाट श्रद्धा का केंद्र बन जाता है। अस्सी घाट से लेकर चेतसिंह किले तक दर्शनार्थियों का जनसैलाब उमड़ पड़ता है। देश ही नहीं, विदेशों से आए पर्यटक भी इस अनुपम दृश्य के साक्षी बनने पहुँचते हैं। सांझ ढलते ही लीला अपने चरम पर पहुँची। बालक कृष्ण स्वरूप ने कदंब वृक्ष से गंगा में छलांग लगाई और जल में उतरे कालिया नाग पर आरूढ़ होकर उसका दमन किया। उस पल ऐसा लगा मानो गंगा स्वयं यमुना में परिवर्तित हो गई हो।गंगा की लहरों के बीच जब कृष्ण नाग के फन पर नृत्य करते हुए उभरे, तो समूचा घाट “नाग नथैया वृंदावन लाल की जय!” के जयकारों से गूंज उठा। भक्तों की आँखों में भक्ति के आँसू थे और उनके होंठों पर केवल हरि नाम। इस दिव्य आयोजन में 84 वर्षीय बैजनाथ मल्लाह और उनका गोताखोर दल विशेष भूमिका निभाता है। बीते 75 वर्षों से वे इस लीला के अभिन्न अंग रहे हैं। उनका दल न केवल जल सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाता है, बल्कि पारंपरिक क्रियाओं के संचालन में भी अग्रणी रहता है। बैजनाथ मल्लाह का कहना है— “हमारे पुरखे इस लीला में सेवा करते आए हैं। जब तक जीवन है, हम तुलसी घाट की इस परंपरा को जीवित रखेंगे। ‘नाग नथैया’ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें काशी के तीनों प्रमुख संप्रदाय—शैव, शाक्त और वैष्णव—एक साथ शामिल होते हैं। यही कारण है कि यह आयोजन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक एकता और समरसता का प्रतीक बन गया है। जैसे-जैसे रात गहराती गई, तुलसी घाट पर दीपों की पंक्तियाँ लहरों पर झिलमिलाने लगीं। गंगा आरती की स्वर-लहरियों के बीच भक्तों के चेहरे पर भक्ति का आलोक बिखर गया। नाग नथैया लीला का समापन तो हुआ, पर उसकी गूंज देर तक घाट और जनमानस में बनी रही। काशी की यह परंपरा केवल भक्ति का उत्सव नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत प्रमाण है जो पाँच शताब्दियों से अडिग है—जहाँ गंगा यमुना बन जाती है, और काशी खुद वृंदावन में बदल जाती है।









